कल्पना की 365 आँखे (4)

आँखे मिचती साँझ,
रंग से बात करती दीवार,
सुनाई देती ताली सात समन्दर पार,
सर पर लिपटा ख्वाहिशों का मकड़ जाल,
सिने से लग कर सोता हाल,
हकीकत में तब्दील होता बहरूपिया ख्याल,
चलते-चलते बदल जाती चाल,
मासूम से आश्चर्य पर हँसता कमाल,

देखा है कभी, आओ मैं दिखाता हूँ।
तुम कल्पना की आँखे खुली रखना।

मक्खी पर बैठा मेज,
ईच्छा को ताकता परहेज,
खिड़की तोड़ कमरे में घुसती बारिश बूंदे चोर,
मुस्कुराने को राजी नहीं होते सिले होंठ,
दिल से चिल्लाकर बात करती धड़कन,
आँसुओं में भीगी आँख की फड़कन,
आदमी को बालों से पकड़ घसीटती परछाई,
आसमान से धरती पर गिरती खाई,
आवाज देने से ठहर जाती हवाएँ,
कंधे लटकाए सुस्त बैठी अदाएं,

देखा है कभी, आओ मैं दिखाता हूँ।
तुम कल्पना की आँखे खुली रखना।

शिकारी नींद की तीर के आगे सपना जिंदा,
ढ़कन से छोटा डिब्बा,
अरमानों को इंटो में चिनता घर,
पेड़ को धरती में खींचती जड़,
खुलने की खातिर आवाज लगाते किवाड़,
दूध का सीना फाड़ती छाछ,
उपद्रव के बीच नंगी नाचती रार,
आँखों के काँच से झांकता दुख,
डूबता सूरज देख रो कर गले मिलते दुख और सुख,

देखा है कभी, आओ मैं दिखाता हूँ।
तुम कल्पना की आँखे खुली रखना।

“”””””जारी”””””

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