बार-बार!? (भाग-4, एक सहेजी तस्वीर)

“वाओ “`” सिया के हाथ में एक नए मोबाइल फोन का डिब्बा देख कर मेरे मुंह से निकला। ”मैंं इसी के बारे में ही सोच रहा था। अगर मैंं इसमें टाइप कर लिखुगा तो लिखाई गंदी वाली कोई परेशानी ही नहीं रहेगी।” मैंंने सिया की तरफ बढ़ते हुए कहा।

सिया ने मुझे भावशून्य ढंग से देखा। उसे लगा जैसे ये तो जबरदस्ती चिपक रहा है। मेरे चहरे पर ख़ुशी थी और वो कोई भारी अनहोनी की आशंका में थी। उसने अतरिक्त वक्त लेते हुए आराम से अपने पर्स और दो- थैलिया को बेड पर रख दिया।

मैंं भी उसके पीछे चल दिया।

वह चुप-चाप बेड के किनारे पर बैठ गई। मैं अपनी व्हीलचेयर पर उसके सामने बैठा था। उसने पहले से ही टेप उखड़े डिब्बे को खोला और उसमे से सिल्वर रंग का चमचमाता बड़ा सा मोबाइल फोन निकाला। मैं उस फोन को एक नजर देखते ही मोहित हो रहा था और इन्तजार कर रहा था कि कब सिया इस ख़ुशी को मेरे साथ बांटे।

लेकिन तमासा कुछ और ही चल रहा था।

उसने मोबाइल फोन की स्क्रीन को ऑन किया। अंदर के सारे प्रोग्रामों को छोड़ कर मोबाइल फोन नेटवर्क सेंटिग्स चेक करने लगी और खुद में ही बड़बड़ाते हुए बोली,

“ये नेटवर्क क्यों नहीं आ रहा है। सिम तो अब तक चल जानी चाहिए थी।”

मैं खपा था। मोबाइल फोन अपने हाथ में ले कर वो खुद को ज्यादा ही समझदार दिखाने की कोशिश कर रही थी। जैसे ये मोबाइल फोन बस काम के लिए ही लिया है बाकि मोह माया में उसकी कोई रूचि नहीं है।

“कितने का लिया ?” मैंंने उसकी मेरे प्रति भयंकर नजरअंदाजगी को तोड़ने की कोशिश करते हुए कहा।

“हुह““?” उसने कहा। उसे सब सुनाई देते हुए भी कुछ सुनाई नहीं दिया। वो नेटवर्क की सेटिंग में खोई हुई थी।

“जानबूझकर ढोंग” मैंंने मन में कहा।

“15” बाद में उसने धीरे से कहा।

“होए““ 15000 रुपए” मैंंने हैरानी से कहा। वैसे रकम बड़ी नही थी लेकिन हमारे लिए महीने के खर्च के बाद इतना बचा पाना ये बात बड़ी थी। और सबसे बड़ी बात थी कि सिया इतने पैसे कैसे खर्च कर पाई। ये उल्टी गंगा बहने से कम आश्चर्य की बात नहीं थी।

सिया नहीं बोली। वो अब कांटेक्ट लिस्ट चेक कर मन बहला रही थी।

अजीब बंदी है ये।

“वैसे एक बात बोलू,” मैंंने मस्का लगाते हुए कहा। “तूने पहली बार जिंदगी में कोई ढंग की चीज खरीदी है।”

सिया मुस्कुराई।

“मोबाइल फोन मुझे तो दिखा।” मैंंने कहा।

सिया ने बेड पर बैठे हुए ही ऑन स्क्रीन को मेरे चहरे के सामने कर दिया। मैंंने आंखे सिकोड़ते हुए होम स्क्रीन पर लगे कुछ एप्स को देखने की कोशिश की। वो चमकीले रगींन आइकन्स इतने अच्छे लग रहे थे कि मेरा उन्हें खाने का मन कर रहा था।

सिया कुछ पल दिखाने के बाद मेरे सामने से मोबाइल फोन हटा ही रही थी कि मैंंने कहा,

“इसे अंदर से तो दिखा।”

सिया ने मोबाइल फोन को अपनी ओर किया और मेनू बटन पर क्लिक कर दुबारा मेरे सामने किया और दसूरे हाथ की ऊँगली से अदांजे से दाएं स्वाइप करने लगी। उसे खुद कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वो बस मेरी तरफ देख रही थी। मैंं सारे फंक्शन्स का जायजा ले रहा था।

“कैमरा!“`” मैंंने रोमांच में कहा। “कैमरा कितने मैंगाफिक्स्ल है।”

“शायद 13 या 16 होगा।” सिया ने अंदाजा लगाया।

“सेटिंग में देख ले,” मैंंने हाथो-हाथ सुझाव दिया।

“तू छोड़ ना, बाद में देख लेंगे।” सिया ने खीजते हुए कहा। उसने स्क्रीन को आगे स्वाइप किया।

“वो देख, वो देख, गूगल मैंप।” मैंंने जोर से कहा।

“तू पागल हो गया क्या?” सिया ने मेरे पागल से व्यवहार पर डांटा।

“एक तो तुझे बता रहा हूँ।” मैंंने अब धीरे से कहा। “इसमें केंडी क्रेश भी है।”

“केंडी क्रेश खलने का वक्त किसके पास है।” सिया ने मुरझाते हुए कहा।

‘मेरे पास ’ मैंं ऐसा कहना चाहता था पर कहा नहीं।

“इतने ही है।” मैंंने अंतिम पेज पर पहुँचने पर सिया को बताया। सिया ऐसे ही बार स्वाइप को खिंच रही थी।

वह फोन को मेरे सामने से हटा कर वापस डिब्बे में रखने लगी। शायद उसे उस फोन में मेरी जबरदस्त रूचि से मेरे इरादों पर शक हुआ। उसने मोबाइल फोन को डिब्बे में रखते हुए कहा,

“मुझे मेरे समेस्टर में इन्टरनेट की जरूरत पड़ती है। इस लिए मुझे ये खरीदना पड़ा। कोलेज में भी दोस्तों से नोट्स भेजने और लेने में दिक्कत होती है। उन सब के पास तो मोबाइल फोन है, इसलिए वो एक-दुसरे के नोट्स की फोटो ले लेते है। पर मुझे नोट्स मांग कर घर लाने पड़ते है। फोटोकॉपी भी कराने पड़ते है।”

मैंंने हाँ में सर हिलाया। मैंं उसे समझ सकता था।

वो खड़ी हो कर समान साम्भतें हुए खमोश थी। मैंं भी अपने मेज की तरफ चल दिया।

लेकिन सिया तो सिया थी उससे नहीं रहा गया।

“तुझे चाहीए क्या?” सिया ने बिना मेरी तरफ देखे मुझसे पूछा।

सिया के ऐसे पूछते ही न जाने क्यों लेकिन मेरे उसके प्रति सारे गिले-शिकवे दूर हो गए। और दुनिया में सिया की ख़ुशी के सामने मुझे मेरी सारी जरूरत और इच्छाए छोटी लगने लगी।

“नहीं““ तुम्हे जरूरत है। मैंं ऐसे ही इसका क्या करूंगा?” मैंंने रुक कर सिया की तरफ घूमते हुए कहा।

“ऐसे करते है दिन में तू रख लेना और शाम के बाद मैंं काम में ले लुंगी।” सिया ने कहा।

मुझे सुझाव बेइंतिहा पसंद आया। कम से कम दिन में चलाने को मिल रहा था। फिर भी मैंंने कहा,

“तो फिर तू कोलेज कैसे ले कर जाएगी?”

सिया ने लापरवाह लहजे से मुंह से ‘टच्च’ की आवाज करते हुए कहा,

“इतना कोई जरूरी नहीं है। मैंं सब सँभाल लुंगी।”

माहौल दोनों तरफ से त्याग का था। जिसे जाहिर होने देने और एक-दुसरे की आँखों में देख बात करने की आदत और हिम्मत दोनों में नहीं थी।

“वैसे तू इसे चलाएगा कैसे?” सिया ने बात बदलते हुए पूछा।

मैं अपनी मेज की तरफ मुड़ गया.

“इधर मेज पर ला कर रखना एक बार।” मैंंने मेरे मेज की तरफ जाते हुए कहा।

वो मेज खास मेरे लिए बना हुआ था। जिसकी उंचाई मेरी छाती से ऊँची थी और जिसके नीचे मेरी इलेक्ट्रिक व्हीलचेयर सीधे चली जाती थी। उस मेज पर मैंं अपने बहुत से दैनिक काम अपने आप, अपने मुहं और सर की सहायता से कर लेता था। जैसे मुंह में डंडी की सहायता से किताब के पेज पलटना, टीवी रिमोट के बटन दबाना और अब मैं पेंसिल से लिखने भी लगा था।

सिया मेरे पीछे मोबाईल ले कर आई और मेरे सामने मेज पर रख दिया। मैंंने अपनी ठुड्डी से मोबाइल फोन को थोड़ा और पास किया। मोबाइल फोन की स्क्रीन के नीचे किनारे पर लगे होम बटन को ठुड्डी से दबा दिया। स्क्रीन ओन हो गई। मैंंने अपनी नोक से मेनू आइकॉन को टच किया। सारे एप्स खुल गए।

“अरे वाह!” सिया के मुहं से निकल पड़ा।

मैंंने नाक से कुछ देर दाएं-बाएँ स्वाइप किया। फिर कैमरा ओपन किया। सिया भी फोटो के लिए उपर झुकते हुए सेट होने लगी। मैंंने उसे थोडा वक्त दिया ताकि पूरी तैयार हो जाए। फिर मैंंने शॉट बटन को क्लीक कर जल्दी से सर को दूर हटा लिया। फिर मैंने फोटो देखने के लिए स्क्रीन को घूरा। सिया भी देखने के लिए मेरे उपर से गिरते-गिरते बची।

पर हम दोनों फोटो देख कर सदमें थे। एक बार तो हमें समझ नहीं आया फिर पता चला कि फोटो में ये मेरे माथा है। फोटो केवल मेरे माथे की ही आई थी।

हमारी हंसी फुट पड़ी। रुक-रुक कर दोनों खूब हंसे।

हंसी थोड़ी काबू में आने पर सिया ने मोबाइल फोन अपने हाथ में उठाया और मेरे पीछे से कंधो के उपर हाथ डाल, फोन सामने करते हुए जैसे ही सेल्फी ली तभी सामने एक स्क्रीन में एक-दुसरे को देखते ही हमारी हंसी छुट गई।

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और आज भी उस लम्हे की वो तस्वीर मेरे पास सहेज कर रखी हुई है। वो हंसी मुझे आज भी सबसे ज्यादा रुलाती है। उस लम्हे में हम खुश नहीं थे। उस वक्त इस दुनिया में हम बिलकुल अकेले और मजबूर थे। पर उस वक्त को भी हंस कर काट रहे थे।

जब भी मेरी आंखे भर आती है तो एक अज्ञात गुस्सा भी साथ आता है। जो जवाब ढूंढने की कोशिश करता है। ऐसा क्यों हुआ मेरे साथ? क्यों मेरी वजह से उस बेचारी मासूम जान को इतना कुछ सहना पड़ा? मैंंने क्या किया उसके अहसानों के बदले ? मैं“` मैंं क्या कुछ कर सकता था उसके लिए? ऐसे ही हजारों सवाल और ख्याल हर पल मेरे जहन में उमड़ते रहते है। जिन्हें बनावटी बहानों से शांत करना मेरे लिए नामुमकिन है।

”””जारी””””

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